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Manikarnika Ghat Unique Tradition: काशी की परंपराएं इतनी अनोखी हैं कि इन पर यकीन करना मुश्किल होता है. ऐसी ही एक परंपरा है जलती चिताओं के बीच नगरवधुओं का नृत्य.
महाश्मशान में क्यों होता है नृत्य जानें परम्परा
हाइलाइट्स
- मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच नगरवधुओं का नृत्य होता है.
- चैत्र शुक्ल सप्तमी को बाबा महाश्मशाननाथ का वार्षिक श्रृंगार होता है.
- नगरवधुओं का नृत्यांजलि सैकड़ों सालों से चली आ रही परंपरा है.
वाराणसी: काशी भगवान त्रिशूल के शिव पर बसी है. जो कहीं नहीं होता, वैसा सिर्फ और सिर्फ काशी में दिखाई देता है. ये ही एकमात्र ऐसा शहर है जहां मृत्यु के शोक के बीच जश्न होता है और गम खुशी में बदल जाता है. ऐसी ही एक अनोखी परंपरा है महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच नगर वधुओं के नृत्य की. इसका सीधा कनेक्शन राजा मान सिंह से भी है.
क्या है ये अनोखी परंपरा
दरअसल, हर साल चैत्र शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को बाबा महाश्मशाननाथ का वार्षिक श्रृंगार होता है. इस दिन ही सैकड़ों साल पहले राजा मान सिंह ने इसका पुनः उद्धार कराया था. उस समय मंदिर के इस आयोजन के लिए राजा मान सिंह ने कई संगीतकारों और कलाकारों को इसके उद्घाटन समारोह के लिए निमंत्रण भेजवाया था. लेकिन महाश्मशान में आने के लिए कोई कलाकार तैयार नहीं हुआ. तब नगर वधुओं ने आकर बाबा महाश्मशाननाथ को अपनी नृत्यांजलि अर्पित की थीं. बस तब से यह परंपरा चली आ रही है.
ये है मान्यता
व्यवस्थापक गुलशन कपूर ने बताया कि ऐसी धार्मिक मान्यता है कि आज के दिन जो भी नगर वधुएं यहां आकर महाश्मशान के बीच अपनी नृत्यांजलि बाबा मसाननाथ को अर्पित करती हैं, उन्हें अगले जन्म में इस नरकीय जीवन से मुक्ति मिल जाती है. इसी कामना से हर साल इस विशेष तिथि पर बड़ी संख्या में नगर वधुएं यहां प्रायश्चित के लिए आती हैं.
पूरी रात गूंजती है घुंघरुओं की आवाज
नगर वधुओं के नृत्यांजलि का यह पूरा क्रम पूरी रात महाश्मशान पर चलता है. इस दौरान एक तरफ चिताएं जलती हैं तो दूसरी तरफ घुंघरुओं की आवाज गूंजती है, जिससे महाश्मशान में मृत्यु का शोक भी खुशी के माहौल में बदल जाता है. ये परंपरा सैकड़ों सालों से चली आ रही है. बताते चलें कि सिर्फ और सिर्फ काशी में ऐसा अद्भुत और अनोखा नजारा देखने को मिलता है.