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संगमनगरी की 70 लाख आबादी में 20 प्रतिशत (तकरीबन 15 लाख) मुस्लिम समाज को संसद में केवल एक बार प्रतिनिधित्व का मौका मिला। वैसे तो इस समुदाय ने लोकतंत्र के हर महोत्सव में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। अपनी पसंद और नापसंद का भी मतों के जरिए इजहार किया। लेकिन 1951 से 2019 तक के आम चुनावों में अतीक अहमद के रूप में अल्पसंख्यक समाज से एकमात्र सांसद ने लोकसभा की सीढ़ियां चढ़ीं। इस दौरान अल्पसंख्यक समाज के कई उम्मीदवार इलाहाबाद और फूलपुर लोकसभा सीटों से चुनाव लड़े लेकिन संसद तक जाने का मौका नहीं मिला।
खास बात यह है कि बाहुबली अतीक अहमद को प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की फूलपुर सीट से रहनुमाई का मौका मिला। 1989 से 2004 तक ढाई दशक अतीक अहमद ने शहर पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र की रहनुमाई की। 1989 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उत्तरे अतीक अहमद ने कांग्रेस के गोपालदास को पराजित किया था। फिर 1991 के चुनाव में निर्दलीय अतीक ने भाजपा के रामचन्द्र जायसवाल और 1993 में फिर निर्दलीय उतरे अतीक ने भाजपा के तीरथराम कोहली को पराजित किया था।
1996 का चुनाव अतीक ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर लड़ा और भाजपा के तीरथराम कोहली को शिकस्त दी। 2002 में अपना दल ने अतीक अहमद को प्रत्याशी बनाया और दबंग नेता ने सपा के गोपाल दास यादव को हरा दिया। 2004 के लोकसभा चुनाव में सपा ने अतीक को फूलपुर से टिकट दिया तो माफिया ने बसपा की केशरी देवी पटेल को पराजित किया और देश की सबसे बड़ी पंचायत में कदम रखा। उस चुनाव में अतीक को 2,65,432 जबकि केशरी देवी को 2,01,085 मत मिले थे। उसके बाद नवंबर 2004 में हुए शहर पश्चिमी विधानसभा उपचुनाव में राजू पाल ने अतीक के भाई अशरफ को हराकर माफिया का वर्चस्व तोड़ा तो शहर की सड़कें खून से लाल हो उठीं।
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राजू पाल की हत्या के बाद हुए उपचुनाव में अशरफ ने जीत दर्ज की। हालांकि 2007 के चुनाव में बसपा को पराजित किया और देश की सबसे बड़ी पंचायत में कदम रखा। उस चुनाव में अतीक को 2,65,432 जबकि केशरी देवी को 2,01,085 मत मिले थे। उसके बाद नवंबर 2004 में हुए शहर पश्चिमी विधानसभा उपचुनाव में राजू पाल ने अतीक के भाई अशरफ को हराकर माफिया का वर्चस्व तोड़ा तो शहर की सड़कें खून से लाल हो उठीं।
राजनीति विज्ञान विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, पंकज कुमार ने कहा कि बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक समाज के लोग के तलाश में बाहर चले जाते है। इसलिए घरों में निर्णायक: और प्रभावी मतदाता कम हैं। एक: और कारण है 2014 के पहले तक समाज जो वोट करता था उसमें कमी आई हैएक प्रकार की अनिच्छा पनपने लगी है। उन्हें लगता है कि ऐसा राजनीतिक दल नहीं मिल रहा जो सिर्फ उनकी बात करें। उनमें ऐसी भावना है कि उनका इस्तेमाल सिर्फ वोट बैंक के रूप में होता रहा है।