विंढमगंज (वीरेंद्र कुमार)
विंढमगंज। भारत ही एक ऐसा देश है जहां अनेक सभ्यता एवं संस्कृति के लोग रहते हैं, त्यौहारों को मनाने का अलग-अलग अंदाज है।संस्कृतियों का समुच्चय है भारत देश।इसमें विविधताओं के असंख्य स्वरूप हैं।उसके अपने मायने हैं।अपनी विशेषता है और खूबसूरती है इसीलिए तो जनपद के थाना क्षेत्र अंतर्गत झारखंड व छत्तीसगढ़ के दूरुह क्षेत्र में बसा बैरखड ग्राम पंचायत आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र जहां पर होली मनाने की अलग और अति प्राचीन परंपरा है। इसके वर्तमान स्वरूप में अत्यंत प्राचीन काल की संस्कृति की झलक दिखाई पड़ रही है।बीती रात होलिका दहन हुआ।आदिवासियों ने रंगों का त्यौहार होली परम्परा गत तरीके से मनाई जा रही है।आदिवासी दिन भर रंगों से सराबोर होकर झूमते रहे।प्रायः ऐसी मान्यता है कि बैरखड़ गांव के आदिवासी 5 दिन पहले होली का त्योहार आदिवासी परम्परा के अनुसार मनाते हैं।पहले होली मनाने की परम्परा को लेकर ग्राम प्रधान उदय पाल कहते हैं कि गांव में जिन्दा होली मनाने की परम्परा काफी पुरानी है।गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि बहुत पहले एक बार गांव में भारी धन जन की क्षति हुई थी और गांव में महामारी जैसी स्थिति हो गई थी।गांव के लोग काफी परेशान थे तब उसका निदान ढूंढने के लिए आदिवासियों ने काफी पहल किया।उस समय आदिवासी समुदाय के बुजुर्ग लोगो एवं धर्माचार्यों ने चार-पांच दिन पहले होली मनाने का सुझाव दिया था, तभी से बैरखड़ गांव में होली मनाने की परंपरा चल पड़ी जिसे आदिवासी समाज आज भी संजोए हुए हैं।गांव के लोग बताते हैं कि गांव में सुख समृद्धि बनी रहती हैं।
मानर की धुन पर झूमते हैं पुरूष और महिलाएं
दुद्धी ब्लॉक क्षेत्र के बैरखड़ में आज आदिवासियों द्वारा परम्परा के साथ होली मनाई गई।वहां मानर की थाप पर होली खेलने की परम्परा आज भी कायम है।बैरखड़ गांव आदिवासी जनजाति बाहुल्य गांव हैं।यहां के निवासी हर त्योहार अपने परम्परा एवं रीति रिवाज के अनुसार मनाते हैं।वैसे भी इस जनजाति का इतिहास प्राचीन काल तक जाता है।ये लोग समूह में इकट्ठा होकर एक-दूसरे को अबीर लगाते है और मानर नामक वाद्ययंत्र की धुन पर नृत्य करते हैं।इस नृत्य में महिलाएं भी शामिल रहती हैं।
नियत तिथि पर नहीं मनाते होली
बैरखड़ के वर्तमान ग्राम प्रधान उदय पाल, पुर्व प्रधान अमर सिंह, छोटेलाल सिंह, रामकिशुन सिंह बताते है कि किसी समय होली के दिन सभी आदिवासी लोग नशे में आनंदित थे। सभी लोग नाच-गा रहे थे, तभी किसी अनहोनी घटना में कई लोग एक साथ मर गए थे, तब आदिवासी धर्माचार्यों ने होली मनाने की परंपरा नियत तिथि से पूर्व मनाने की सलाह दी।उसके बाद से गांव में 4-5 दिन पहले होली मनाई जाने लगी और गांव सुख शांति और अमन चैन कायम हो गई तब से ही गांव में जिंदा होली मनाने की परंपरा हो चली जो अब तक जारी है।उन्होंने बताया कि होलिका दहन वैगा या अपनी ही बिरादरी के मनोनीत वैगा या पंडित लोगों से कराने की प्रथा है।इस स्थल को संवत डाड़ कहा जाता है जहां होलिका दहन के अगले दिन होलिका दहन के अवशेष को उड़ाते हुए दिनभर होली खेलते हुए अपने ईष्ट देव की आराधना एवं पूजा पाठ करते हैं।