सोवियत संघ के पतन को 3 दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है और इन तमाम सालों में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता पर मज़बूत पकड़ बनाए हुए है। इस ताकतवर और दबंग संगठन ने दुनिया की आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा रखने वाले देश पर 75 साल तक शासन किया है। इस मामले में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने रूस में 74 साल के सोवियत युग को भी पीछे छोड़ दिया है। 1949 में सत्ता संभालने के बाद पार्टी ने शुरुआती कई सालों तक अपने ही कई फैसलों का खामियाजा भुगता। लेकिन 1978 में हुए एक बड़े सुधार ने चीन को औद्योगिक रूप से एक विशाल देश में बदल दिया, जिसकी अर्थव्यवस्था आकार में सिर्फ सुपरपावर अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर आ गई है।
अमेरिका के साथ मुकाबले से शुरू होगा नया शीत युद्ध?
पार्टी के नेता अब 2049 तक राष्ट्र के ‘कायाकल्प’ को हासिल करने के लिए एक और भी मज़बूत चीन का निर्माण करना चाहते हैं, जो कम्युनिस्ट शासन के 100 साल पूरे होने का प्रतीक होगा। इतने लंबे समय तक सत्ता में बने रहना इस बात पर निर्भर करेगा कि वे धीमी वृद्धि और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ बढ़ती प्रतिस्पर्धा के दौर में कैसे काम करते हैं, जिसने एक नए शीत युद्ध की आशंका को जन्म दिया है। पिछले कुछ सालों में अमेरिका और चीन के बीच जिस तरह के रिश्ते रहे हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में ड्रैगन के सामने कई चुनौतियां होंगी।
माओत्से तुंग चीन के शासक के रूप में बुरी तरह नाकाम रहे थे।
क्रांति में नायक, पर शासन में खलनायक बन गए माओ
चीन में कम्युनिस्ट शासन के पहले 25 साल कुछ खास नहीं रहे। 1 अक्टूबर 1949 को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना की घोषणा करने के बाद माओत्से तुंग एक विशाल देश को चलाने में क्रांति का नेतृत्व करने की तुलना में कम कुशल साबित हुए। उन्होंने 1956 में ‘हंड्रेड फ्लावर्स कैंपेन’ में पार्टी के शासन की आलोचना करने के लिए बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया, लेकिन सरकार के खिलाफ विरोध बढ़ने के बाद उनमें से कई बुद्धिजीवियों को ग्रामीण क्षेत्रों में निर्वासित कर दिया गया या जेल में डाल दिया गया। चीन के औद्योगीकरण को गति देने के लिए 1958 में शुरू की गई ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ की हवा-हवाई नीतियों के कारण विनाशकारी अकाल पड़ा, जिसमें लाखों लोग मारे गए।
‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ के नाकाम होने के बाद चीन में सांस्कृतिक क्रांति आई। माओ ने 1966 में नौजवान चीनियों को पूंजीवादी तत्वों के खिलाफ खड़े होने के लिए ललकारा, जिससे भयानक अराजकता फैल गई जिसमें बुद्धिजीवियों और शिक्षकों को ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिए भेज दिया गया, सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया, मारा-पीटा गया, हत्या कर दी गई या उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया गया। 1976 में माओ की मृत्यु के बाद ही चीन ने एक नए रास्ते पर कदम रखा जिसने देश की आर्थिक क्षमता को उजागर किया और लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला।
शासन कम्युनिस्ट, लेकिन काम कैपिटलिस्ट
पिछले कुछ दशकों में हुए चीन के तेज विकास ने पारंपरिक ज्ञान को चुनौती दी है। शीत युद्ध के दौरान साम्यवाद नियोजित अर्थव्यवस्थाओं से जुड़ा था जबकि लोकतंत्र मुक्त बाजारों के साथ चल रहा था। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने उस पैमाने को तोड़ दिया है। इसने ऐसे किसी भी लोकतांत्रिक आंदोलन को दूर रखते हुए जो कि सत्ता पर उसकी पकड़ को चुनौती दे सके, बाजार की ताकतों को आंशिक रूप से मुक्त कर दिया है। पश्चिमी देशों की उम्मीदें कि चीन अनिवार्य रूप से लोकतंत्र की ओर बढ़ेगा, जैसा कि कई अन्य एशियाई राज्यों ने आर्थिक रूप से समृद्ध होने के बाद किया, मुंगेरीलाल के हसीन सपने ही साबित हुईं।
1989 में बीजिंग के तियानमेन स्क्वेयर पर छात्रों के नेतृत्व में हुए विरोध प्रदर्शन देश के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थे। काफी आंतरिक बहस के बाद डेंग शियाओपिंग के नेतृत्व में पार्टी नेतृत्व ने विरोध प्रदर्शनों को खत्म करने के लिए सेना को मैदान में उतारा और इसमें जमकर खून बहा। ऐसा करते हुए पार्टी नेतृत्व का संदेश स्पष्ट था: आर्थिक उदारीकरण होगा लेकिन ऐसा कोई भी राजनीतिक उदारीकरण नहीं होगा जो कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिति को खतरे में डाल सके। उसके बाद से चीन ने आर्थिक तौर पर काफी विकास किया है, लेकिन लोकतंत्र अभी भी वहां सपना ही है।
चीन में आज भी लोकतंत्र की दूर-दूर तक कोई आहट सुनाई नहीं देती।
जिनपिंग के नेतृत्व में मार्क्सवाद की तरफ फिर से बढ़ी पार्टी
कम्युनिस्ट पार्टी शी जिनपिंग के नेतृत्व में मार्क्सवाद को वापस ला रही है। इसने सभी मामलों में पार्टी और नेता शी जिनपिंग की केंद्रीय भूमिका पर नए सिरे से जोर दिया है और देश में ऊंची उड़ान भरने वाले टेक दिग्गजों पर लगाम लगाते हुए अर्थव्यवस्था पर अधिक मजबूत नियंत्रण का दावा किया है। इस बदलाव ने कुछ श्रमिकों, व्यवसायियों और विदेशी निवेशकों के बीच यह डर पैदा कर दिया है कि पार्टी बाजार की ताकतों को ऐसे समय में रोक रही है, जब अर्थव्यवस्था को अपने पैर जमाने के लिए उनकी जरूरत है।
हांगकांग यूनिवर्सिटी के एक राजनीतिक सिद्धांत विशेषज्ञ डैनियल बेल ने कहा कि चीन का प्रक्षेपवक्र मार्क्सवादी विचार से मेल खाता है कि साम्यवाद में संक्रमण से पहले अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए एक राष्ट्र को पूंजीवादी चरण से गुजरना पड़ता है। 2023 में अपनी पुस्तक ‘द डीन ऑफ शांदोंग’ में अपनी सोच को रेखांकित करने वाले बेल ने कहा, ‘एक विचार था कि, आप जानते हैं, एक बार जब चीन पूंजीवादी हो जाता है, तो वह साम्यवाद को त्याग देता है। लेकिन यह केवल अस्थायी था।’
आने वाले 25 सालों में सामने होंगी कई नई चुनौतियां
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने पूर्व सोवियत संघ के अंत की स्टडी की है और अपने यहां भी इसी तरह के परिणाम को रोकने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। लेकिन आने वाले 25 सालों में उन्हें नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि जनसंख्या बढ़ती जा रही है और उनकी आर्थिक और भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं देश को अपने कुछ पड़ोसियों और दुनिया की राज करने वाली महाशक्ति, अमेरिका के साथ संभावित टकराव के रास्ते पर ला खड़ा करती हैं। अब ऐसे में कम्युनिस्ट पार्टी चीन पर अपने शासन के 100 साल कैसे पूरे करती है, या पूरे कर भी पाती है या नहीं, यह देखने वाली बात होगी। (एपी)