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Lok Sabha Election 2024: लोकसभा चुनाव के दो चरणों में अपेक्षाकृत कम मतदान ने दावेदारों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। माना जा रहा है कि इस बार चुनाव नतीजों में जीत हार का अंतर कम रहेगा और कांटे की टक्कर से नतीजे निकलेंगे। मुकाबले राजनीतिक दल आधारित नहीं बल्कि उम्मीदवार आधारित ज्यादा हो रहे हैं।
राजनीतिक विशलेषकों को मानना है कि बढ़ती गर्मी की वजह से तो वोटर नहीं निकल रहे, पर अन्य कुछ कारणों से भी मतदाता मतदान करने को लेकर उदासीन दिखते हैं। जनता के बीच जाकर उनके मुद्दों पर बात करने के बजाए सोशल मीडिया पर प्रचार ज्यादा है। राजनीतिक दल अपने मुद्दों व प्रचार अभियान से जनता को उत्साहित नहीं कर पा रहे हैं।
सोशल मीडिया पर ज्यादा केंद्रित रहा प्रचार
यूपी के मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय में बरसों से चुनाव कराने का अनुभव रखने वाले व विशेष कार्याधिकारी पद से रिटायर हुए अतीक अहमद का कहना है कि इस बार सत्ताधरी दल के साथ ही विपक्षी दलों का चुनाव प्रचार जमीनी सतह के बजाए सोशल पर मीडिया पर ज्यादा केंद्रित हो गया है। बढ़ती गर्मी भी एक अहम वजह है। पूर्वोत्तर के राज्यों, केरल में भी इस बार मतदान प्रतिशत गिर रहा है।
वोट प्रतिशत कम होने से परिणामों पर कयास
राजनीतिक विश्लेषक चौधरी लोटन राम निषाद साफ कहते हैं कि इस बार कम मतदान की वजह से नतीजे कुछ अलग हो सकते हैं। पश्चिम में राजपूतों की, पिछड़ों में निषाद, विश्वकर्मा, लोधी और दलितों में गैर जाटव समुदाय की नाराजगी भी नजर आ रही है। संविधान बदलने, आरक्षण खत्म कर देने के मुद्दों से दलित वोट बैंक भी इस बार मतदान के प्रति उदासीन दिख रहा है।
यूपी में दोनों चरणों में कम रहा मतदान
उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 80 लोकसभा की सीटें हैं, लेकिन वहां के वोटरों में चुनाव को लेकर उत्साह नहीं दिख रहा है. पहले चरण में जहां 57 प्रतिशत वोट पड़े, वहीं दूसरे चरण में महज 54.8 फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।जानकारों का मानना है कि किसके पक्ष में ज्यादा वोट गया है इस रूझान से निष्कर्ष निकालना काफी मुश्किल है।
कोई लहर न होने से मतदाता के रुख में उदासीनता
वर्ष 2011 से 2022 तक मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय में कार्यरत रहे और संयुक्त मुख्य निर्वाचन अधिकारी पद से रिटायर हुए रमेश चन्द्र राय कहते हैं कि कम मतदान के पीछे गर्मी कोई बहुत अहम वजह नहीं है, 2019 में भी गर्मियों में ही चुनाव हुए थे। हां यह जरूर कहा जा सकता है कि वोटर केन्द्र की सरकार बदलने के मूड में नहीं है इसलिए 1975, 1984 और 1989 के लोकसभा चुनावों जैसी कोई बदलाव की लहर नहीं है।
यही नहीं इस बार लोकसभा चुनाव राजनीतिक दल आधारित होने के बजाए प्रत्याशी आधारित देखा जा रहा है इसलिए प्रत्याशी के धर्म व जाति की वजह से वोटरों में भी धार्मिक व जातीय समीकरण हावी दिख रहे हैं। इस बार का मतदान काफी बिखरा नजर आ रहा है।