Pandit Nehru Seat Phulpur Lok Sabha Political equation गंगा नदी के तट पर स्थित फूलपुर संसदीय क्षेत्र (Phulpur Lok Sabha constituency) उत्तर प्रदेश राज्य के प्रयागराज जिले में स्थित है। फूलपुर संसदीय क्षेत्र राजनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण रहा है। भारत के पहले प्रधानमंत्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू, 1952 से 1962 तक इस क्षेत्र से सांसद रहे थे। हालांकि पंडित जवाहर लाल नेहरू की कर्मभूमि रही फूलपुर संसदीय क्षेत्र ने पंडित नेहरु की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को अपनाने के बाद नेहरु परिवार से धीरे-धीरे दूरी बनानी शुरू कर दी। राजनीति के हर रंग फूलपुर के सियासी आंगन में खिले हैं। पंडित नेहरू की कर्मभूमि के मतदाताओं ने कई बड़े चेहरों को फूलों का ताज पहनाया तो कई दिग्गजों को नकार दिया है। आजाद भारत की संसदीय राजनीति में जवाहरलाल नेहरू ने फूलपुर को चुनावी कर्मक्षेत्र बनाया। तब यह सीट इलाहाबाद पूर्व कम जौनपुर पश्चिम के नाम से जानी जाती थी।
आंकड़े बताते हैं कि फूलपुर की मिट्टी ने जबतक जिसको चाहा उसे फूलों का ताज पहनाकर उसका स्वागत किया नहीं तो उसे अपनी सरजमी पर खड़े होने लायक नहीं छोड़ा। सीट पर पंड़ित नेहरू ने जहां जीत हासिल कर हैट्रिक बनाया है वहीं राम पूजन पटेल भी एक बार 1984 में कांग्रेस के टिकट पर और दो बार 1989 और 1991 में जनता दल के टिकट से जीत हासिल कर हैट्रिक लगाने का कार्य किया है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1952 में चुनाव जीतकर सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचने के बाद देश का प्रधानमंत्री बनने का गौरव हासिल किया। इसके बाद 1957 में फूलपुर के अलग सीट के तौर पर अस्तित्व में आने के बाद भी नेहरू ने यहीं से अपना दूसरा लोकसभा का चुनाव लड़ा। वर्ष 1962 में उनके सामने सोशलिस्ट पार्टी ने समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया को मैदान में उतारा। दो बड़े नेताओं की टक्कर ने सुर्खियां तो खूब बटोरीं। श्री लोहिया ने पंडित नेहरू को कड़ी अक्कर दी थी लेकिन हैट्रिक लगाने से नेहरू को रोक नहीं सके। पंड़ित नेहरू को 118931 मत मिले तो लोहिया को 54360 मत मिले थे। पंडित नेहरू के चुनाव लड़ने के कारण फूलपुर सीट महत्व बढ़ गया और इसे वीवीआपी सीट का दर्जा मिला।
वर्ष 1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद फूलपुर में उपचुनाव हुआ। कांग्रेस ने पंडित नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित को उम्मीदवार बनाया और वह जीत गईं। वर्ष 1967 के आम चुनाव में उन्होंने फिर उम्मीदवारी की। इस बार विपक्ष ने उनके सामने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के युवा छात्रनेता जनेश्वर मिश्र को उतार दिया, जो बाद में सियासत में छोटे लोहिया के नाम से मशहूर हुए। इस चुनाव में हालांकि, वोटों की लड़ाई में फूलपुर ने साथ नेहरू की विरासत को ही दिया।
विजयलक्ष्मी के संयुक्त राष्ट्र में जाने के कारण 1969 में उपचुनाव हुआ। कांग्रेस ने नेहरू के सहयोगी केशव देव मालवीय को उतारा, लेकिन इस बार जीत जनेश्वर को मिली। विजयलक्ष्मी के बाद नेहरू परिवार ने फूलपुर से दूरी बना ली।
नेहरू परिवार के जाने के बाद से ही कांग्रेस की जमीन फूलपुर में दरकने लगी। 1971 में कांग्रेस से विश्वनाथ प्रताप सिंह जरूर जनेश्वर पर भारी पड़े, लेकिन 1977 में आपातकाल की लहर में कांग्रेस यहां भी किनारे लग गई। हेमवती नंदन बहुगुणा की पत्नी कमला बहुगुणा भारतीय लोकदल से सांसद बनीं। 1980 के चुनाव में कमला ने कांग्रेस का दामन थाम लिया तो फूलपुर ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाकर जनता पार्टी सेक्युलर के बीडी सिंह को चुन लिया।
वर्ष 1984 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हत्या के चलते मिली सहानुभूति ने कांग्रेस की दरकती जमीन को एक बार मजबूती प्रदान की लेकिन इसके बाद यहां ‘हाथ’ को जनता का साथ नहीं मिला। कांग्रेस को जीत दिलवाने वाले रामपूजन पटेल ने 89 और 91 में जनता दल के टिकट पर जीत दर्ज की और पंडित नेहरू के बाद यहां हैट्रिक लगाने वाले दूसरे चेहरे बने।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार फूलपुर की ऐतिहासिक सीट ने न सिर्फ पंडित जवाहरलाल नेहरू, वीपी सिंह और केशव प्रसाद मौर्य समेत तमाम सियासी दिग्गजों को देश की सबसे बड़ी पंचायत तक पहुंचाया है, बल्कि कई बड़े और चर्चित नाम वालों को ज़ोर का सियासी झटका भी दिया है। देश में समाजवाद का पुरोधा कहे जाने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया से लेकर बीएसपी संस्थापक कांशीराम, और अपना दल की स्थापना करने वाले डॉ सोनेलाल पटेल से लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री जनेश्वर मिश्र व इंटरनेशनल क्रिकेटर मोहम्मद कैफ जैसे चर्चित संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, भाजपा सांसद रीता बहुगुणा जोशी की मां कमला बहुगुणा, पूर्व केंद्रीय मंत्री चंद्रजीत यादव, अनेको को यहां से मुंह की खानी पड़ी है।
फूलपुर संसदीय क्षेत्र के 65 वर्षीय हरखू राम ने बताया कि यहां से पंडित नेहरू तीन बार जीते, वी पी सिंह ने जीत हासिल किया लेकिन यहां विकास और स्थानीय लोगों के रोजगार से जुड़ा कुछ काम नहीं हुआ। इसलिए फूलपुर के लोगों का कांग्रेस के प्रति मोह भंग होता गया। बाद के दिनों में 1980 में भाजपा के उदय होने के साथ हिन्दू उसके साथ जुड़ने लगे, फिर 1982 में सपा के आने से मुस्लिम वोट कटने लगा और शेष दलित, पिछड़े को 1984 में बसपा के उदय ने उसको समाप्त कर दिया।